Ramayan Quotes, Status | रामायण चौपाई अर्थ सहित

रामायण चौपाई अर्थ सहित | Ramayan Chopai

Ramayan-chopai-status
1.मंगल भवन अमंगल हारी
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी॥1॥

भावार्थ:- जो मंगल करने वाले और अमंगल हो दूर करने वाले है, वो दशरथ नंदन श्री राम है वो मुझपर अपनी कृपा करे।।



2.होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥2॥

भावार्थ:- जो भगवान श्री राम ने पहले से ही रच रखा है,वही होगा। हम्हारे कुछ करने से वो बदल नही सकता।॥2॥



3.हो, धीरज धरम मित्र अरु नारी
आपद काल परखिये चारी॥3॥

भावार्थ:- बुरे समय में यह चार चीजे हमेशा परखी जाती है, धैर्य, मित्र, पत्नी और धर्म।॥3॥



4.जेहिके जेहि पर सत्य सनेहू
सो तेहि मिलय न कछु सन्देहू॥4॥

भावार्थ:- सत्य को कोई छिपा नही सकता, सत्य का सूर्य उदय जरुर होता है।॥4॥



5.हो, जाकी रही भावना जैसी
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥5॥

भावार्थ:- जिनकी जैसी प्रभु के लिए भावना है उन्हें प्रभु उसकी रूप में दिखाई देते है।॥5॥



6.रघुकुल रीत सदा चली आई
प्राण जाए पर वचन न जाई॥6॥

भावार्थ:- रघुकुल परम्परा में हमेशा वचनों को प्राणों से ज्यादा महत्व दिया गया है।॥6॥



8.हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता
कहहि सुनहि बहुविधि सब संता॥7॥

भावार्थ:- प्रभु श्री राम भी अंनत हो और उनकी कीर्ति भी अपरम्पार है,इसका कोई  नही है। बहुत सारे संतो ने प्रभु की कीर्ति का अलग अलग वर्णन किया है।॥7॥



9.बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥

अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥8॥

भावार्थ:- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥8॥ Ramayan Chopai Collection


10.सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी।
किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥9॥

भावार्थ:- वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥9॥



11.श्री गुर पद नख मनि गन जोती।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू॥10॥

भावार्थ:- श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥10॥



12.उघरहिं बिमल बिलोचन ही के।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥

सूझहिं राम चरित मनि मानिक।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥11॥

भावार्थ:- उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं॥11॥



13.उघरहिं बिमल बिलोचन ही के।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥

सूझहिं राम चरित मनि मानिक।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥11॥

भावार्थ:- उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं॥11॥



14.गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन।
नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥

तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन।
बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥

भावार्थ:- श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥



15.बंदउँ प्रथम महीसुर चरना।
मोह जनित संसय सब हरना॥

सुजन समाज सकल गुन खानी।
करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥

भावार्थ:- पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥2॥



16.हरि हर जस राकेस राहु से।
पर अकाज भट सहसबाहु से॥

जे पर दोष लखहिं सहसाखी।
पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥2॥

भावार्थ:- जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात जहाँ कहीं भगवान विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात्‌ जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं)॥2॥



17.भल अनभल निज निज करतूती।
लहत सुजस अपलोक बिभूती॥

सुधा सुधाकर सुरसरि साधू।
गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥

गुन अवगुन जानत सब कोई।
जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥

भावार्थ:- भले और बुरे अपनी- अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात्‌ कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥4-5॥



18.मृदुल मनोहर सुंदर गाता।
सहत दुसह बन आतप बाता॥

की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ।
नर नारायन की तुम्ह दोऊ॥5॥

भावार्थ:- मन को हरण करने वाले आपके सुंदर, कोमल अंग हैं और आप वन के दुःसह धूप और वायु को सह रहे हैं क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश- इन तीन देवताओं में से कोई हैं या आप दोनों नर और नारायण हैं॥5॥



19.देत लेत मन संक न धरई।
 बल अनुमान सदा हित करई॥

बिपति काल कर सतगुन नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥

भावार्थ:- देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥3॥



20.आगें कह मृदु बचन बनाई।
पाछें अनहित मन कुटिलाई॥

जाकर चित अहि गति सम भाई।
अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥

भावार्थ:- जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है॥4॥



21.सेवक सठ नृप कृपन कुनारी।
कपटी मित्र सूल सम चारी॥

सखा सोच त्यागहु बल मोरें।
सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥

भावार्थ:- मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥



22. सुखी मीन जे नीर अगाधा।
जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा॥

फूलें कमल सोह सर कैसा।
निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥1॥

भावार्थ:- जो मछलियाँ अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने से तालाब कैसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता है॥1॥



23.मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु।
रामचंद्र कर काजु सँवारेहु॥

भानु पीठि सेइअ उर आगी।
स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी॥2॥

भावार्थ:- मन, वचन तथा कर्म से उसी का (सीताजी का पता लगाने का) उपाय सोचना। श्री रामचंद्रजी का कार्य संपन्न (सफल) करना। सूर्य को पीठ से और अग्नि को हृदय से (सामने से) सेवन करना चाहिए, परंतु स्वामी की सेवा तो छल छोड़कर सर्वभाव से (मन, वचन, कर्म से) करनी चाहिए॥2॥



24.मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु।
रामचंद्र कर काजु सँवारेहु॥

भानु पीठि सेइअ उर आगी।
स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी॥2॥

भावार्थ:- मन, वचन तथा कर्म से उसी का (सीताजी का पता लगाने का) उपाय सोचना। श्री रामचंद्रजी का कार्य संपन्न (सफल) करना। सूर्य को पीठ से और अग्नि को हृदय से (सामने से) सेवन करना चाहिए, परंतु स्वामी की सेवा तो छल छोड़कर सर्वभाव से (मन, वचन, कर्म से) करनी चाहिए॥2॥



25.सोइ गुनग्य सोई बड़भागी।
जो रघुबीर चरन अनुरागी॥

आयसु मागि चरन सिरु नाई।
चले हरषि सुमिरत रघुराई॥4॥

भावार्थ:- सद्गुणों को पहचानने वाला (गुणवान) तथा बड़भागी वही है जो श्री रघुनाथजी के चरणों का प्रेमी है। आज्ञा माँगकर और चरणों में फिर सिर नवाकर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए सब हर्षित होकर चले॥4॥



26.पापिउ जाकर नाम सुमिरहीं।
अति अपार भवसागर तरहीं॥

तासु दूत तुम्ह तजि कदराई।
राम हृदयँ धरि करहु उपाई॥2॥

भावार्थ:- पापी भी जिनका नाम स्मरण करके अत्यंत पार भवसागर से तर जाते हैं। तुम उनके दूत हो, अतः कायरता छोड़कर श्री रामजी को हृदय में धारण करके उपाय करो॥2॥



27.अस बिबेक जब देइ बिधाता।
तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥

काल सुभाउ करम बरिआईं।
भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥

भावार्थ:- विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥1॥



28.सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं।
दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥

खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू।
मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥

भावार्थ:- भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥



29.लखि सुबेष जग बंचक जेऊ।
 बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥

उघरहिं अंत न होइ निबाहू।
कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥

भावार्थ:- जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता है, परन्तु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं, अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ॥3॥



30.किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू।
जिमि जग जामवंत हनुमानू॥

हानि कुसंग सुसंगति लाहू।
लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥

भावार्थ:- बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान्‌ और हनुमान्‌जी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं॥4॥



31.गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा।
कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥

साधु असाधु सदन सुक सारीं।
सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥

भावार्थ:- पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥5॥



32.धूम कुसंगति कारिख होई।
लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥

सोइ जल अनल अनिल संघाता।
होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥

भावार्थ:- कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है॥6॥



33.आकर चारि लाख चौरासी।
जाति जीव जल थल नभ बासी॥

सीय राममय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥1॥

भावार्थ:- चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ॥1॥



34.जग बहु नर सर सरि सम भाई।
जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥

सज्जन सकृत सिंधु सम कोई।
देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥7॥

भावार्थ:- हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात्‌ अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है॥7॥



35.सब जानत प्रभु प्रभुता सोई।
तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥

तहाँ बेद अस कारन राखा।
भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥1॥

भावार्थ:- यद्यपि प्रभु श्री रामचन्द्रजी की प्रभुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं, तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया है कि भजन का प्रभाव बहुत तरह से कहा गया है। (अर्थात भगवान की महिमा का पूरा वर्णन तो कोई कर नहीं सकता, परन्तु जिससे जितना बन पड़े उतना भगवान का गुणगान करना चाहिए, क्योंकि भगवान के गुणगान रूपी भजन का प्रभाव बहुत ही अनोखा है, उसका नाना प्रकार से शास्त्रों में वर्णन है। थोड़ा सा भी भगवान का भजन मनुष्य को सहज ही भवसागर से तार देता है)॥1॥



36.एक अनीह अरूप अनामा।
अज सच्चिदानंद पर धामा॥

ब्यापक बिस्वरूप भगवाना।
तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥2॥

भावार्थ:- जो परमेश्वर एक है, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम है और जो सबमें व्यापक एवं विश्व रूप हैं, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है॥2॥ Ramayan Chopai Quotes



37.सो केवल भगतन हित लागी।
परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥

जेहि जन पर ममता अति छोहू।
जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥3॥

भावार्थ:- वह लीला केवल भक्तों के हित के लिए ही है, क्योंकि भगवान परम कृपालु हैं और शरणागत के बड़े प्रेमी हैं। जिनकी भक्तों पर बड़ी ममता और कृपा है, जिन्होंने एक बार जिस पर कृपा कर दी, उस पर फिर कभी क्रोध नहीं किया॥3॥ रामायण चौपाई अर्थ सहित



38.गई बहोर गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू॥

बुध बरनहिं हरि जस अस जानी।
करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥4॥

भावार्थ:- वे प्रभु श्री रघुनाथजी गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले, गरीब नवाज (दीनबन्धु), सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देने वाली बनाते हैं॥4॥



39.तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा।
कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥

मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई।
तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥5॥

भावार्थ:- उसी बल से (महिमा का यथार्थ वर्णन नहीं, परन्तु महान फल देने वाला भजन समझकर भगवत्कृपा के बल पर ही) मैं श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर श्री रघुनाथजी के गुणों की कथा कहूँगा। इसी विचार से (वाल्मीकि, व्यास आदि) मुनियों ने पहले हरि की कीर्ति गाई है। भाई! उसी मार्ग पर चलना मेरे लिए सुगम होगा॥5॥



40.बंदउँ नाम राम रघुबर को।
हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥

बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो।
अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥

भावार्थ:- मैं श्री रघुनाथजी के नाम ‘राम’ की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात्‌ ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ रूप से बीज है। वह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है॥1॥



41.महामंत्र जोइ जपत महेसू।
कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥

महिमा जासु जान गनराऊ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥2॥

भावार्थ:- जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस ‘राम’ नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥2॥



42.समुझत सरिस नाम अरु नामी।
प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥

नाम रूप दुइ ईस उपाधी।
अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥1॥

भावार्थ:- समझने में नाम और नामी दोनों एक से हैं, किन्तु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है (अर्थात्‌ नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं। प्रभु श्री रामजी अपने ‘राम’ नाम का ही अनुगमन करते हैं (नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं)। नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि हैं, ये (भगवान के नाम और रूप) दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुंदर (शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धि से ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जानने में आता है॥1॥



43.भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥

सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा।
करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥1॥॥

भावार्थ:- अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। उसी (परम कल्याणकारी) राम नाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ॥1॥



44.मोरि सुधारिहि सो सब भाँती।
जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥

राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो।
निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥2॥

भावार्थ:- वे (श्री रामजी) मेरी (बिगड़ी) सब तरह से सुधार लेंगे, जिनकी कृपा कृपा करने से नहीं अघाती। राम से उत्तम स्वामी और मुझ सरीखा बुरा सेवक! इतने पर भी उन दयानिधि ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है॥2॥



45.लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती।
बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥

गनी गरीब ग्राम नर नागर।
पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥3॥

भावार्थ:- लोक और वेद में भी अच्छे स्वामी की यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेम को पहचान लेता है। अमीर-गरीब, गँवार-नगर निवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी॥3॥ रामायण चौपाई अर्थ सहित



46.सुत बिषइक तव पद रति होऊ।
मोहि बड़ मूढ़ कहे किन कोऊ॥

मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना।
मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥3॥

भावार्थ:- आपके चरणों में मेरी वैसी ही प्रीति हो जैसी पुत्र के लिए पिता की होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा भारी मूर्ख ही क्यों न कहे। जैसे मणि के बिना साँप और जल के बिना मछली (नहीं रह सकती), वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे (आपके बिना न रह सके)॥3॥



47.कलयुग केवल नाम अधारा,
सुमिर सुमिर नर उतरहि पारा॥

भावार्थ:- इस कलयुग में भगवान का नाम ही आधार है। केवल नाम सुनने से, जपने से मानव भाव सागर से उतर जाता है। नाम जप में किसी विधिविधान, देश, काल, अवस्था की कोई बाधा नहीं है। किसी प्रकार से, कैसी भी अवस्था में, किसी भी परिस्थिति में, कहीं भी, कैसे भी नाम जप किया जा सकता है। इस नाम जप से हर युग में भक्तों का भला हुआ।



48.जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी।
जीवत सव समान तेइ प्रानी॥

जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥

भावार्थ:- जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं, जो जीभ श्री रामचन्द्रजी के गुणों का गान नहीं करती, वह मेंढक की जीभ के समान है।



49.रामकथा सुंदर कर तारी।
संसय बिहग उड़ावनिहारी॥

रामकथा कलि बिटप कुठारी।
सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥

भावार्थ:- भगवान शिव पार्वती जी को कहते है- श्री रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेह रूपी पक्षियों को उड़ा देती है। फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो॥



50.अग्य अकोबिद अंध अभागी।
काई बिषय मुकुर मन लागी॥

लंपट कपटी कुटिल बिसेषी।
सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥

भावार्थ:- जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं और जिनके मन रूपी दर्पण पर विषय रूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्न में भी संत समाज के दर्शन नहीं किए।



51.होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन॥

हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥

भावार्थ:- घर में रहते बुढ़ापा आ गया, परन्तु विषयों से वैराग्य नहीं होता (इस बात को सोचकर) उनके मन में बड़ा दुःख हुआ कि श्री हरि की भक्ति बिना जन्म यों ही चला गया।



52.बिनु सत्संग विवेक न होई।
रामकृपा बिनु सुलभ न सोई॥

भावार्थ:- सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और भगवान की कृपा के बिना सच्चे संत नहीं मिलते। तोते की तरह रट-रटकर बोलने वाले तो बहुत मिलते हैं, परंतु उस ‘सत्’ तत्त्व का अनुभव करने वाले महापुरूष विरले ही मिलते हैं। आत्मज्ञान को पाने के लिए रामकृपा, सत्संग और सदगुरू की कृपा आवश्यक है। ये तीनों मिल जायें तो हो गया बेड़ा पार।



53.आनंद सिंधु सुखरासी।
सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥

सो सुखधाम राम अस नामा।
अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥

भावार्थ:- ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम ‘राम’ है, जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है॥3



54.आनंद सिंधु सुखरासी।
सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥

सो सुखधाम राम अस नामा।
अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥

भावार्थ:- ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम ‘राम’ है, जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है॥3॥



55.अरुन नयन उर बाहु बिसाला।
नील जलज तनु स्याम तमाला॥

कटि पट पीत कसें बर भाथा।
रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥1॥

भावार्थ:- भगवान के लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं, नील कमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम्बर (पहने) और सुंदर तरकस कसे हुए हैं। दोनों हाथों में (क्रमशः) सुंदर धनुष और बाण हैं॥1



56.स्याम गात कल कंज बिलोचन।
जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥

कौसल्या सुत सो सुख खानी।
नामु रामु धनु सायक पानी॥3॥

भावार्थ:- जिनका श्याम शरीर और सुंदर कमल जैसे नेत्र हैं, जो मारीच और सुबाहु के मद को चूर करने वाले और सुख की खान हैं और जो हाथ में धनुष-बाण लिए हुए हैं, वे कौसल्याजी के पुत्र हैं, इनका नाम राम है॥3॥



57.गौर किसोर बेषु बर काछें।
कर सर चाप राम के पाछें॥

लछिमनु नामु राम लघु भ्राता।
सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥4॥

भावार्थ:- जिनका रंग गोरा और किशोर अवस्था है और जो सुंदर वेष बनाए और हाथ में धनुष-बाण लिए श्री रामजी के पीछे-पीछे चल रहे हैं, वे इनके छोटे भाई हैं, उनका नाम लक्ष्मण है। हे सखी! सुनो, उनकी माता सुमित्रा हैं॥4॥



58.चापत चरन लखनु उर लाएँ।
सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥

पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता।
पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥4॥

भावार्थ:- श्री रामजी के चरणों को हृदय से लगाकर भय और प्रेम सहित परम सुख का अनुभव करते हुए लक्ष्मणजी उनको दबा रहे हैं। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बार-बार कहा- हे तात! (अब) सो जाओ। तब वे उन चरण कमलों को हृदय में धरकर लेटे रहे॥4



59.देखि सीय शोभा सुखु पावा।
हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई।
बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥3॥

भावार्थ:- सीताजी की शोभा देखकर श्री रामजी ने बड़ा सुख पाया। हृदय में वे उसकी सराहना करते हैं, किन्तु मुख से वचन नहीं निकलते। (वह शोभा ऐसी अनुपम है) मानो ब्रह्मा ने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो॥3॥ Ramayan Chopai Quotes



60.सुंदरता कहुँ सुंदर करई।
छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥

सब उपमा कबि रहे जुठारी।
केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥4॥

भावार्थ:- वह (सीताजी की शोभा) सुंदरता को भी सुंदर करने वाली है। (वह ऐसी मालूम होती है) मानो सुंदरता रूपी घर में दीपक की लौ जल रही हो। (अब तक सुंदरता रूपी भवन में अँधेरा था, वह भवन मानो सीताजी की सुंदरता रूपी दीपशिखा को पाकर जगमगा उठा है, पहले से भी अधिक सुंदर हो गया है)। सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूँठा कर रखा है। मैं जनकनन्दिनी श्री सीताजी की किससे उपमा दूँ॥4॥



61.सिव द्रोही मम भगत कहावा।
सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥

संकर बिमुख भगति चह मोरी।
सो नारकी मूढ़ मति थोरी॥4॥

भावार्थ:- जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शंकरजी से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है॥4॥



62.रामेस्वर दरसनु करिहहिं।
ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥

जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि।
सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥1॥

भावार्थ:- जो मनुष्य (मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा (अर्थात्‌ मेरे साथ एक हो जाएगा)॥1॥



63.होइ अकाम जो छल तजि सेइहि।
भगति मोरि तेहि संकर देइहि॥

मम कृत सेतु जो दरसनु करिही।
सो बिनु श्रम भवसागर तरिही॥2॥

भावार्थ:- जो छल छोड़कर और निष्काम होकर श्री रामेश्वरजी की सेवा करेंगे, उन्हें शंकरजी मेरी भक्ति देंगे और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाएगा॥2॥

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